Friday 10 April 2020

पचखा

जेठ की सुबह कुछ ऐसी होती थी कि पूरा गाँव एकसाथ जागकर  अपनी-अपनी ड्योढ़ी पर आ खड़ा होता था. पूरब दिशा में सूर्य जब तक अपनी पूरी लालिमा बिखेरता उसके पहले ही गाँव के सभी लोग जाग जाते थे. औरतें सबसे पहले जागती थीं. औरतों का जागना समुचे गाँव को संगीत की ध्वनि से भर देता था. कितने ही सुर एक-दूसरे से टकराकर रोज ही अनंत में खो जाते थे. हर घर से अलग-अलग आवाज़ें आती थीं. हर घर की औरतें अपने तरीके से दिन का स्वागत करती थीं. बिहान बेला में गाये गये गीतों में एक तादात्म्य स्थापित हो गया था. गीत चाहे अलग-अलग ही क्यों न हो, आवाज़ एक जैसी ही निकलती थी.

रघुवीर प्रसाद की पत्नी सरस्वति देवी पिछले तीस सालों से सुबह का स्वागत एक ही गीत से करती आ रही थीं.
" कलयुगवा में राम नाम भज ल हो..
कलयुगवा में राम नाम भज ल हो..
बेटा-बेटी कोई काम ना दिहि
छुट जायी तन से प्राणवा हो
कलयुगवा में राम नाम भज ल हो".
रघुवर प्रसाद अपनी पत्नी के साथ पिछले बीस वर्षों से अपने घर में अकेले रह रहे थे. रघुवीर प्रसाद का एक लड़का था . रघुवीर प्रसाद के लड़के को गाँव आये बीस बरस हो गये थे. बीस बरसों से सरस्वती देवी और रघुवीर प्रसाद ने अपने बेटे का चेहरा नहीं देखा था. रघुवीर प्रसाद का एक पोता भी था. रघुवीर प्रसाद का पोता पिछले पाँच सालों से गर्मी की छुट्टियों में एक सप्ताह के लिए उनके पास रहने आता था.
सरस्वती देवी तब तक गीत गाती थीं जब तक उगता हुआ सूरज उनके आँगन के दक्खिन कोने से दिखाई  देना बंद न हो जाता था. सरस्वती देवी का कमरा पूरब कोने में था. रघुवीर प्रसाद कमरे में नहीं सोते थे. रघुवीर प्रसाद पिछले बीस वर्षों से ड्योढी में सो रहे थे. आँगन बुहारते-बुहारते सरस्वती देवी दक्खिन कोने में जाकर खड़ी हो जाती थीं. सरस्वती देवी कोने में खड़ी होकर गीत गाती थीं. गीत की आवाज़ सुनकर रघुवीर प्रसाद की नींद खुलती थी. नींद खुलते ही रघुवीर प्रसाद सरस्वती देवी को आवाज़ लगाते थे. आवाज़ सुनते ही सरस्वती देवी ताँबे का लोटा में पानी लेकर ड्योढ़ी में जाती थीं. रघुवीर प्रसाद पानी पीकर अपने चमड़े का जूता पैरों में डालते  और पूरब की ओर चार कदम चलकर ड्योढ़ी का दरवाजा खोलते थे. ड्योढ़ी का दरवाजा खुलते ही ड्योढ़ी लाल-सुनहले रंगों से भर जाता था. सुनहले रंग जब रघुवीर प्रसाद की देह पर पड़ते तो बीती हुई रात का अंधेरा उनके देह से अचानक ही उतर जाता था. ड्योढ़ी वाले दरवाजा के खुलते ही सरस्वती देवी अचानक ही ड्योढ़ी से गायब होकर आँगन में पहुँच जाती थीं. सरस्वती देवी का आँँगन में पहुँचना रघुवीर प्रसाद को बिल्कुल साधारण लगता था. सरस्वती देवी का आँगन में पहुँचना कोई जादू नहीं था, ऐसा पिछले बीस वर्षों से हो रहा था.

सरस्वती देवी के आँगन में जाते ही रघुवीर प्रसाद चार कदम चलते हुए दरवाजे से बाहर निकलते. बाहर निकलते ही रघुवीर प्रसाद एक ढ़लान से  उतरकर सीधे अपने खलिहान में पहुँँच जाते थे. खलिहान में पहुँचकर वह खलिहान के बीचों बीच खड़ा होकर अपने बगीचे पर नज़र दौड़ाते. इसबार आधा जेठ बीतने के बाद भी गेहूँ खलिहान में ही पड़ा हुआ था. बगीचा, खलिहान से सटा हुआ था. खलिहान, बगीचे से इतना नजदीक था कि बगीचे को देखने में रघुवीर प्रसाद को अधिक मशक्कत नहीं करना पड़ता था. खलिहान में पहुँचते ही रघुवीर प्रसाद थोड़ा परेशान सा दिखे. न जाने कितने वर्षों के बाद इस बार आधा जेठ बीतने के बाद भी अनाज खलिहान से आँगन तक नहीं पहुँचा था. रघुवीर प्रसाद का चेहरा खलिहान के बीचोबीच खड़े इस प्रकार दिख रहा था कि रघुवीर प्रसाद बीस वर्षों के बाद किसी जेठ में इतने परेशान दिखाई दे रहें हो. रघुवीर प्रसाद अचानक से बगीचे में चले गये. बगीचे में मालदह आम का आठ पेड़ था. बगीचे के चारो कोने में दो-दो मालदह आम का पेड़ था. रघुवीर प्रसाद पूरब कोने में जाकर खड़े हो गये. खड़े-खड़े उन्होंने आम का एक फल  छुआ. उनका छुआ कुछ ऐसा था कि वह पहली बार इतनी सुबह किसी फल को पेड़ से लटकते हुए छू रहे हों. रघुवीर प्रसाद ने मन ही मन अनुमान लगाया कि फल दस दिनों बाद तोड़ने लायक हो जायेंगे. रघुवीर प्रसाद फिर खलिहान में आकर खड़े हो गये और गेहूं के बोझे को एकटक देखने लगे. रघुवीर प्रसाद को खयाल आया कि अगर इतनी सुबह वह संपत के घर जाकर उसे बुला लाएं तो कल तक अनाज उनके आँगन में पहुँच जायेगा. इसी खयाल में रघुवीर प्रसाद कहार टोला में संपत को बुलाने चल  दिए. रघुवीर प्रसाद अपने दाएं हाथ में बकूली (छड़ी) को लिए इस तरह चल रहे थे कि संपत उनके खलिहान में तुरंत हाजिर हो जाएगा. संपत के टोले में पहुँचते ही रघुवीर प्रसाद को रोने की आवाज़ सुनायी दी. रघुवीर प्रसाद पहली बार इस प्रकार इतनी सुबह किसी का रोना सुन रहे थे.संपत को दो दिनों पहले लू लग गयी थी. संपत की पत्नी बेतहाशा रो रही थी. वहीं खड़े एक आदमी का कहना था कि अगर संपत को हरा आम मिल जाता तो वह बच जाता. अगर संपत को हरा आम मिला जाता तो उसका लू उतर जाता. रघुवीर प्रसाद को इस बात से बड़ी ग्लानि हुई.
वहाँ से रघुवीर प्रसाद संजीवन बेलदार के घर की ओर चल दिए. संजीवन बेलदार के घर पहुँचते ही उन्होंने देखा कि संजीवन बेलदार हथेली को रगड़कर खैनी झाड़ रहा है. संजीवन बेलदार अपने चबूतरे पर बैठा था. रघुवीर प्रसाद का मन हुआ कि संजीवन के साथ वह भी चबूतरे पर बैठ रहें. एकाएक उत्पन्न हुए इस खयाल को रघुवीर प्रसाद ने मार दिया. वह खड़े-खड़े ही संजीवन से बोले, " ऐ! संजीवन आज आकर बगीचे से आम को तोड़ दो". संजीवन अचानक से कहे इस बात को सुन नहीं पाया. संजीवन रघुवीर प्रसाद को एकटक देखने लगा. संजीवन पहली बार रघुवीर प्रसाद को इस तरह देख रहा था. रघुवीर प्रसाद का चेहरा उसको डरावना लगा. कुछ इस तरह कि अब गाँव में  कुछ बुरा होगा.


रघुवीर प्रसाद थोड़ी देर बार अपने दालान में बैठे थे. उनके नाश्ते का वक़्त हो गया था.नाश्ता खत्म होने के पहले ही संजीवन उनके पास हाजिर था. संजीवन के हाँथ में हरे रंग का टाट था. रघुवीर प्रसाद ने उसको बगीचे में जाने को कहा. संजीवन के साथ उसके दोनों लड़के भी आये थे. बड़ा लड़का छोटे लड़के से थोड़ा बड़ा था. बड़ा लड़का सबसे आगे चल रहा था, बीच में संजीवन और सबसे पीछे उसका छोटा लड़का. वे तीनों इस छोटी दूरी को थोड़ा बड़ा करके चल रहे थे. बगीचे में पहुँचते ही छोटे लड़के ने एक आम तोड़ लिया. संजवीन ने छोटे लड़का को इस तरह मारा की दायीं तरफ उसका गाल लाल हो गया. बड़े लड़के ने पूरब की ओर टाट को बीछा दिया. टाट बीछाते समय बड़ा लड़का अपने छोटे भाई को रोते हुए एकटक देख रहा था. ऐसा करते हुए बड़े लड़के का पाँव टाट से फँस गया और वह गिर पड़ा. उसके गिरते ही संजीवन ने उसको चार गंदी गालियां दी. संजीवन कोने में खड़े होकर सोच रहा था कि वह किस तरफ से पेड़ पर चढ़ेगा. पेड़ पर चढ़ना आसान नहीं था. पेड़ पर चीटियों का घर था. बड़ा लड़का गिरकर खड़ा हो गया था.

कुछ देर बाद रघुवीर प्रसाद भी बगीचे में आ गये थे. रघुवीर प्रसाद ने आते ही बड़े लड़को को दालान में से कुर्सी लाकर बगीचे में लगाने को कहा. बड़ा लड़का तुरंत खलिहान में पहुँच गया. वह बहुत सावधानी से चल रहा था, वह फिर गिरना नहीं चाहता था. वह दालान में पहुँचकर पहले आसपास का जायजा लिया, फिर वहाँ पड़ी कुर्सी पर वह बैठ गया. कुर्सी पर बैठते ही उसे संजवीन की गालियां याद आयी. वह तुरंत कुर्सी  से उठ गया. वह कुर्सी को दोनों हाथों से पकड़कर बगीचे में पहुँच गया. कुर्सी के पहुँचते ही रघुवीर प्रसाद कुर्सी पर दोनों पैर चढ़ाकर बैठ गये.संजवीन अभी भी एक कोने में खड़ा होकर कुछ सोच रहा था.


सरस्वती देवी का जीवन कुछ ऐसा था कि उन्हें पता रहता था कि किस क्षण वह आँगन में कहाँ खड़ी होंगी. ऐसा बीस वर्षों के असाधारण प्रयास से संभव हो पाया था. बीस सालों से नियमित किया गया प्रयास से उनका जीवन सरल हो गया था. उन्हें पता था कि उन्हें नाश्ते के बाद क्या करना है और कहाँ मौजूद होकर करना है. लेकिन अचानक से सरस्वती देवी को आज अपनी बड़की ननद का खयाल आया. यह खयाल असाधारण था. शायद बीस सालों के बाद पहली बार उनको अपनी बड़की ननद का खयाल आया था. सरस्वती देवी की बड़की ननद को अपने नईहर आये बीस बरस हो गये थे. सरस्वती देवी का लड़का भी बीस वर्षों से उनसे मिलने नहीं आया था. न जाने क्यों सरस्वती देवी को एक गीत याद आयी जो अक्सर उनकी बड़की ननद गाया करती थीं.
"हमर ननदी के भैया चिरैया...
कतेक दिन रहबै ओ मोरंग में".
अचानक से ही सरस्वती देवी के समक्ष स्मृतियों का अंबार लग गया. एक स्मृति दूसरी से उलझकर गायब होती गई और फिर कई और स्मृतियां आँखों के आगे दस्तक देने लगी. आह! स्मृतियों का ऐसा माया पहले तो कभी नहीं हुआ था. सरस्वती देवी अपने आप में सिमटती चली गईं. उन्हें पता भी न चला की एक पहर बेर भी गीर गया. खाना तैयार करने का भी समय हो गया. पीछले बीस वर्षों से सरस्वती देवी गृहस्थी का एकालाप में कुछ इस तरह रत गई थीं कि उनकी अनेक स्मृतियाँ खंडित सी हो गई. आज खाना बनाते वक़्त अचानक से रघुवीर प्रसाद का चेहरा उनके आगे मंडराने लगा. सरस्वती देवी ने सोचा, ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ था, आज अचानक से मुझे हो क्या गया है. हे! प्रभु आप शक्ति देना मुझे, शक्ति देना मुझे. सरस्वती देवी जानती थीं कि इस पड़ाव पर उन्हें ईश्वर शक्ति नहीं दे सकता है. वह ईश्वर का नाम लेकर सिर्फ स्वयं को ढ़ाढ़स दे रही थी. अचानक से उन्हें अपने पोते की याद आयी और वह फफककर रोने लगी. ऐसा किसके साथ होता होगा कि कोई अपने पोते का चेहरा देखने के लिए तरस जाए. ऐसी नियति किसकी होती है. सरस्वती देवी अपने पोते को देखकर, अपने बेटे को भी देख लेती थीं.

संजीवन पेड़ पर चढ़कर आमों को हरे टाट पर गिरा रहा था. टाट के दोनों छोर को उसके दोनों लड़के पकड़े हुए थे. हरा आम हरे टाट पर गिरकर थोड़ी देर के लिए गायब हो जाता था. हरा आम हरे टाट पर ऐसे गिर रहा जैसे उसको घास पर गिराया जा रहा हो. रघुवीर प्रसाद ने संजवीन को पेड़ से उतरने को कहा. संजवीन पेड़ से उतरकर हरे आमों को बीस-बीस भागों में बाँटने लगा. कुल आम हुए चार सौ, जिसमें से संजवीन को मिले सिर्फ चालीस आम.
रघुवीर प्रसाद जब ड्योढ़ी में पहुँचे तो उन्हें घंटी की आवाज़ सुनाई दी. सरस्वती देवी रत होकर आराध्य की आराधना कर रही थीं. रघुवीर प्रसाद बहुत दिनों बाद उन्हें इतनी नजदीक से तल्लीनता के साथ उन्हें रत (आध्यात्मिक व्यस्तता) देख रहे थे. रघुवीर प्रसाद जाकर चुपचाप ड्योढ़ी में बैठ गए. कुछ देर बाद सरस्वती देवी खाना लेकर उनके सामने खड़ी थीं. सरस्वती देवी ने थाली को मेज पर रख दिया. रघुवीर प्रसाद उठे, चार कदम आगे की ओर बढ़े, अचानक से उनका साथ सरस्वती देवी के माथे को स्पर्श कर गया. यह घटना सरस्वती देवी के लिए असाधारण थी. बीस सालों बाद कोई असाधारण घटना. सरस्वती देवी की स्मृतियां उमड़ पड़ी. रघुवीर प्रसाद झेंप गये. रघुवीर प्रसाद खाने को बैठे. हर निवाले के साथ उनका आधा अन्न पुनः उनकी थाली में गिर पड़ रहा था. रघुवीर प्रसाद गिरे हुए अन्न को दोबारा नहीं उठाते थे. यह उनके अंदर का आत्मघाती सामंतवाद का एक अंश था जो बहुत दिनों बाद अपनी कुंडली से बाहर निकला था. सामंतवाद हजारों बार खाने-पीने के तौर-तरीके में अपने आपको समाहित कर लेता है. सरस्वती देवी ने रघुवीर प्रसाद को ऐसे खाते हुए कब देखा था, उन्हें भी याद नहीं हो रहा था. सरस्वती देवी बेचैन हो उठी. एक ऐसी बेचैनी जो उनकी अनासक्ति को तोड़कर पैदा हुई थी.
शामें शाम की तरह कभी नहीं आयी सरस्वती देवी के जीवन में. शाम का आना अगली सुबह का न्योता होता था. सरस्वती देवी अपने घर की छत पर नहीं चढ़ती थीं. वह शाम को सीढ़ियों पर बैठकर निर्गुण गाती थी.
"जैसे बीते ले दिनवा...
जैसे कटी -कटी कटेले रतिया
एक दिन कटी जायी
जीवन के डोरीया
केहु सहाय भी ना होई..
कटी जायी जीवन के डोरीया
एकदिन देखत-देखत".

रघुवीर प्रसाद और सरस्वती देवी के लिए रात का महत्व नहीं था.
सुबह फिर हुई. रघुवीर प्रसाद से रहा नहीं गया. वह फिर संजवीन के घर गये. संजवीन के घर पर चीत्कार मचा हुआ था. रघुवीर प्रसाद लौट आए. लौटते हुए रघुवीर प्रसाद बुदबुदा रहे थे.
पचखा...पचखा..पचखा लग गया है गाँव को. वह अपनी ड्योढ़ी में आकर बैठ गए. वह बुदबुदाये जा रहे थे. गाँव को पचखा लग गया है. गाँव को पचखा लग गया है.

रघुवीर प्रसाद का पोता गर्मियों में अचानक से एक सप्ताह के लिए उनके पास आ जाता था. रघुवीर प्रसाद के लिए उसका आना कुछ निश्चित जैसा था. दोपहर को उनका पोता उनके साथ ड्योढ़ी में बैठा था. अचानक से रघुवीर प्रसाद बोल पड़े, "चंद्रमाधव, तुम्हें पता है , गाँव को पचखा लग गया है". चंद्रमाधव सशंकित हो उठा, कुछ इस तरह की पहली बार वह इस शब्द को सुन रहा हो. सरस्वती देवी आतंकीत हो उठीं, उनके भीतर एक ऐंठन हुआ. फिर वह एकटक से चंद्रमाधव को निहारने लगी. रात को करीब एक साल बाद उनके घर में चुल्हा जला था. चंद्रमाधव से एक शब्द नहीं बोल सकीं थी सरस्वती देवी. वह बस उसे निहारे जा रही थीं और अपने आँचल को अपनी आँखों पर रखकर आँसुओं को रोकने का प्रयास कर रही थीं.
अगली सुबह असाधारण थी. रघुवीर प्रसाद जाग गये थे. आज सुबह आँगन में गाने की आवाज़ नहीं हुई थी. रघुवीर प्रसाद सशंकित हो उठे. जस का तस उसी तरह बैठे रहे. फिर अचानक से आँगन में गये. चंद्रमाधव आँगन में टहल रहा था. फिर असाधारण ढंग से उनका प्रवेश सरस्वती देवी के कमरे में हुआ, शायद बीस बरस बाद.
रघुवीर प्रसाद आँगन में आकर संयमित ढंग से बोलते हैं, "चंद्रमाधव, तैयारी करो, सरस्वती अब कभी नहीं गायेंगी, तैयारी करो".
शमशान घाट पर धधकती हुई चीता के सामने रघुवीर प्रसाद खड़े थे. कुछ और लोग थे जो उन्हें चलने को कह रहे थे. लोग सामने लगी गाड़ी में जाकर बैठ गए. चंद्रमाधव उनके कंधे पर हाथ रखकर खड़ा था. अचानक से चंद्रमाधव बोल पड़ा,"बाबा, चलिए". रघुवीर प्रसाद उठे और गाड़ी में बैठे लोगों से बोल पड़े,"आपलोग जाइए".
रघुवीर प्रसाद, चंद्रमाधव का हाथ पकड़े चीता के पास खड़ा हो गये और बोलने लगे-
"आपलोग जाइए,आपलोग जाइए".
गाँव को पचखा लग गया है.

Wednesday 8 March 2017

आखिरी महीना क्या होता है?
आखिरी तारीख क्या होती है?
अखबारों में छपता है दिसंबर आखिरी महीना है,
रंगीन परदों पर आखिरी तारीख का जश्न मनाया जाता है.

क्या आखिरी भी कुछ होता है?
आखिरी तो बस जीवन है
ये जो हम आंकड़ो में सिमटकर रह गये
एक आदमी को नजदीकी संभावनाओं के भार
से मार दिया.
आदमी के मृत्यु की क्या कोई तारीख होती है?
आखिरी का अर्थ है मोहन जोदारो के मृत कंकालों
जैसी शांति.
आखिरी का अर्थ है हिमालय पहाड़ के तले दबे
पशुओं के अवशेषों से.

फिर जो तुम एक तरसते हुए को आखिरी
शब्द से क्यों बहलाते हो?
क्या आज सड़क किनारे सोते हुए ठंड से आखिरी बार कोई मरेगा?
क्या आज राम सीता की अंतिम बार अग्नपरीक्षा लेंगे?
क्या आज फिर कोई कृष्ण मर्यादा के नाम पर अंतिम बार अपना हित साधेगा?
क्या आगे कोई अभिमन्यु कौरवों के हाँथों न मारा जायेगा?
क्या आज आखिरी बार गाँधी की हत्या पर जश्न मनाया जायेगा?

क्या मैं अनात्म हो गया हूँ?
क्या मैं एक टेरीयार के कुत्ते से स्वार्थी हूँ जो तुम मुझे बहला रहे हो?

क्या आज अंतिम बार महंगे होटलों में करोड़ो खर्च किये जायेंगे?

आखिरी एक तस्सली है
जिससे सभ्यता के ठेकेदारों का पेट चलता है.
आखिरी एक नाउम्मीदी है.

Tuesday 7 February 2017

अंधेरा

कुछ  बातें  ऐसी  होती  हैं  की  हम  उन्हें  न  चाहते   हुए  भी  अपने  भीतर  दबाये  रखते  हैं। हम  नहीं  चाहते  की  उन  बातों  में  हवा  लगे। क्योंकि  हवा  में  ऑक्सीजन  की  मात्रा  अधिक  रहने  से  बातों  में  भी  आग  लगने  का  डर  रहता  है।  बातें  दुनिया  की  सबसे  ज्वलनशील  पदार्थों  में  से   एक  है। इसीलिए  मैं  बातों  को  संज्ञाहीन  नहीं  मानता।
हमारी  जिंदगी  में  कुछ  ऐसी  बातें  होती  हैं  जिन्हें  हम  साझा  करने  से  हिचकिचाते  है। इन्हीं  बातों  से  फिर  कहानियों  का  उत्सर्जन  होता  है। मैं  आगे  जो  लिखूँगा  अगर  आपको  उसमें  तनिक  भी  विश्वास  न  हो  तो  आप  मान लीजिएगा  की  मैं  झूठ  बोल  रहा  हूँ। वैसे  भी  कहानियाँ  अक्सर  ही  झूठी  हुआ  करती  हैं  क्योंकि  सच  तो  आज  सबसे  बड़ा  झूठ  है।

कुछ  लोगों  से  इतना  अधिक  आत्मीय  संबंध  स्थापित  हो   जाता  की  हम  उस  स्थिति  में  एक  दूसरे  की  आत्मा  को  भी  भेद  देते  हैं। संवाद  का  उस वक़्त  बहुत  अधिक  मायने  नहीं  रह  जाता। हम  बिना  बोले  भी  एक  दूसरे  से  निरंतर  संवाद  में  रहते  हैं। ठीक  उसी  प्रकार  जैसे  कोई  पक्षी  अपने  मुँह  में शिकार  को  लिये  हुए  अनंत  आकाश  में  उड़  रही  होती  है  और  प्रकृति  से  संवाद  भी  कर  रही  होती  है।

मेरे  और  नंदन  के  बीच  का  संबंध  भी  कुछ  इसी  तरह  का  था। एक  ही  साल  में  जन्म  हुआ,  साथ-साथ  पढ़ाई  की, कुछ  दिनों  तक  हमदोनों  साथ  रहे  भी। पर  सबकुछ  कुछ  साल  पहले  एकाएक  बदल  गया  ठीक  उसी  तरह  जैसे  सामुद्र  में  आये  किसी  भयावह  सुनामी  के  बाद  कोई  तटीय  शहर  हमेशा  के  लिए  बदल  जाता  है। मैं  आजकल  एक  तटीय  प्रदेश  में  ही  रहता  हूँ  जहाँ  हिचकोले  आते  ही  रहते  हैं  पर  शहर  का  प्रारूप  नहीं  बदल  पाते।

बचपन  की  ओर  जब  भी  लौटता  हूँ  तो  नंदन  की  तस्वीर  एकाएक  उभरने  लगती  है  और  मैं  उन  तमाम  तस्वीरों  और  यादों  में  गिरफ्तार  हुए  चला  जाता  हूँ। तस्वीरों  का  हमारे  मस्तिष्क  से  मिट  जाना  मजबूरी  के  होने  जैसा  है। एक ऐसी  मजबूरी  जिसे  हम  मजबूर  होकर  भी  नहीं  याद  करना  चाहते, एक ऐसी  मजबूरी  जहाँ  हम  मजबूर  होकर  भी  लौटना  नहीं  चाहते।

नंदन  शायद  कोई  प्रकृति  का  नियम  था  जिसे  मैं  नहीं  समझ  पाया। बिल्कुल  उसी  तरह  जैसे  गैलिलियों  को  दुनिया  नहीं  समझ  सकी  थी। नंदन  भी  जिस  दहलिज  पर  खड़ा, उसके  सारे  रास्तों  और  अर्थों  के  बारे  में  मुझे  अक्सर  समझाया  करता। पर  मेरे  आँखों  पर  तो  परदा  पड़ा  था। रूढ़िवाद  का  परदा, पितृसत्ता  का  भय, समाज  का  डर  और  मैं  उसकी  बातों  को  सुनकर  आत्मग्लानि  से  भर  जाता। मुझे  ऐसा  लगता  की  मैं  नंदन  की  हत्या  क्यों  न  कर  डालूँ।

नंदन  मेरे  सभी  साथियों   में  सबसे  अधिक  समझदार, सौम्य  और  सरल  था। हर  बात  को  सोच-समझकर  बोलता। कविताओं, कहानियों  का  दीवाना  था  बचपन  से  हीं।

बचपन  से  चलते  हुए  हमदोनों  किशोरावस्था  में प्रवेश  कर  चुके  थे। शारिरिक  और  मानसिक  बदलावों  ने  रंग  दिखाना  शुरू  कर  दिये  थे। मुझे  अजीब-अजीब  ख्याल  आते। अपने से  विपरीत  लिंगों  पर  आकर्षण  होने  लगा, ख्यालों  की  दुनिया  को  और  भी  रफ़्तार  मिला। मेरे  सारे  दोस्त  बदल  गये। बदला  तो  नंदन  भी  था। पर  जिन  बातों  में  हमलोग  रूझान  रखते , उन  बातों  में  उसका  जी  न  लगता। शाम  को  जब  हम  सभी  दोस्त  मिलते  तो  रंजना  से  लेकर  प्रिया  तक  की  चर्चा  होती।  कौन  क्या  पहनी  हुई  थी,  किसमें  कितना  बदलाव  आया  है, कौन  किसपे  जाँ निसार  करती  हैं  और  तमाम  तरह  की  बातें  जिन्हें  बताना  मैं  मुनासिब  नहीं  समझता। आज  वह  लड़की  नहीं  आई  थी। आख़िर  वह  क्यों  नहीं  आई। कुछ  देर  में  यही  बातें  पिरियड्स विमर्श  का  रूप  ले  लेती  और  सभी   लोग  उसपर  व्याख्यान  देते  मानोकि  उन  लोगों  ने  ही  उस  प्रक्रिया  को  भोगा  हो।

इन  सब  बातों  के  बीच  नंदन  एकदम  चुपचाप  रहता, बैखाश  की  नदी  की  तरह  स्थिर। न हाँ  कहता न  न। जैसे  मानो  उसे  इन  सब  बातों  से  कुछ  वास्ता  ही  न  हो। वास्ता  से  अधिक  अपने  आपसे  कुछ  उम्मीद  ही  न  हो।

हमलोग  दसवीं  कक्षा  में  चले  गये  थे। विद्यालय  की  स्थिति  कुछ  ऐसी   थी  की  अंग्रजी  साहित्य  और  इतिहास  एकहीं  शिक्षक  पढ़ाते  थे। इसका  मतलब  यह  की  हमलोग  गाँधी  जी  को  ही  वौर्ड्सवर्थ  भी  मान  लेते  और  सेक्सपियर  को  नेहरू। पी.बी  सेली  और  भगत  सिंह  में  अधिक  अंतर  नहीं  समझ  पाये। समानता  के  तौर  पर  यही  जान  सके  की  दोनों  ही  पच्चीस  के  पहले  चले  गये।

"एनैमर्ड  बाय  योर  एमपेकेबल  ब्यूटी  को   हमलोग  स्ट्रगल फॉर  स्वराज  मान  बैठे"

"ब्रेकप  और  बंगाल  विभाजन  में  अंतर  न  समझ  सके"।

अजॉय  सर  जो  दोनों  विषयों  को  एक  तरह  ही  पढ़ाते  थे। इतिहास  पढ़ाते  तो  ऐसे-ऐसे  टर्म्स  लाते  की  दिमाग  खूल  जाता। क्लास-स्टर्गल , क्लास  डिफरेंस।  सर  ने  एक  चैप्टर  पढ़ाया  था- " इंडस्ट्रीयल  रीवोल्यूसन  एंड  इट्स  इंपैक्ट  ऑन  द  वर्ल्ड"।  पूरा  चैप्टर  निकल  गया  और  मैं  दो  शब्द  ही  सीख  सखा, क्लास  स्ट्रगल एंड  क्लास  डिफरेंस। और  सर  का  प्रिय  वाक्य-" द  हिस्ट्री ऑफ  ह्यूमन  सिविलाइजेशन  इज  द  हिस्ट्री  ऑफ  क्लास  स्ट्रगल"।

पर  अजॉय  सर  जिस  सरलता  से  पढ़ाते  थे, वैसा  पढ़ाने  वाला  व्यक्ति  मुझे  कभी  नहीं  मिला। हरेक  छात्र  से  जुड़े  रहते  और  हाँथ  खोलकर  मार्क्स  भी  देते। कभी-कभार  तो  लोगों  को  इतना  मिल  जाता  की  उतना  लोग  लिख  के  न  आते।
कोई  दोस्त  का  या  एक  या  दो  नंबर  कम  रहता  तो  वह  बोलता-
" ये अजैया  भी  पगला  है  एकदम, तुम  तो  बोल रहे  थे। की  तुम  75 का  ही  लिखे  हो, फिर  78 कैसे  आ  गया"।  फिर  जब स्कूल  से निकला  उसके  बहुत  सालों  बाद  समझ  आया  कि-" सर  वांट्स  टू  एलिमिनेट  द  क्लास  डिफरेंस  एमंग  हिज़  स्टूडेंट्स"।

नंदन  सर  का  प्रिय  छात्र  था। हर  जब  क्लास  से  बाहर  जाते  तो  वह  भी  उनके  पास  जाता  और  बहुत  आत्मियता  से  बातें  करता। अजॉय  सर  के  हर  क्लास  का  नंदन  बेसब्री  से  इंतज़ार  करता।

जो  लोग  अधिक  आत्मियता  से  बातें करते  हैं, उनके  बारे  में  अफवाहें  भी  अधिक   फैलती  हैं। स्कूल  का  पूरा  समय  अफवाहों  से  भरा  पड़ा  रहता। हर  घंटे  अफवाहों  की   मंडियाँ  लगती  और  वहाँ  मोल-भाव  करके  उनका  दाम  लगाया  जाता। अजॉय  सर  के  बारें  में   यह  अफवाह  फैला-" अजैया  तो  अपने  उम्र  से  पंद्रह  साल  छोटी  लड़की  के  साथ  रहता  है"।
फिर  एक  आवाज़  आयी-" हम  तो  उसको  एकदिन  भट्टाचार्य  रोड  पर  देखे  ही  थे, स्ट्राबेरी  फ्लैवर  खिला  रहा  था  उसको"।
एक  और  आवाज  आयी-
" हाँ,  मैंने  भी  देखा  था  दोनों  को  फन्नी  घोष  लेन  पर, एकदम  सटकर  घुसूर-फुसूर  न  जाने  क्या  बतिया  रहा  था"।

"बतियाएगा  का  क्या,  अपना  खुराकी  बता  रहा  होगा"।
फिर  कई  आवाजें  आयीं-
मैंनें  भी....मैंने  भी...मैंनें  भी।

आज   अजॉय  सर  का  चरित्र-प्रमाण  पत्र  बनने  वाला  था । बस  गवाहों  के  सारे  बयानातों  को  कलमबंद  किया  जा  रहा  था।
फिर  किसी  की   आवाज़  आयी-" बड़ा  रसिक  निकला  ये  तो  बे"।
अफवाहों  के  बाद  हमारे  भीतर  से  जो  डर  होता  है  वह  या  तो  चला  जाता  है  या  भयानक  तरीके  से  अपना  विस्तृत  रूप  धारण  कर  लेता  है।

अगले  दिन  अजॉय  सर  क्लास  में  आते  हैं  और  उसके  बाद  पीछे  से  कई  आवाजें  आती  हैं।
"सर  हिट्स  सिक्स"
"वेल  प्लेड  सर"
"वाट्  एन  ऐग्रेसीव  शॉट  सर"।
हमलोगों  के  लिए  सबकुछ  क्रिकेट  ही  था। अश्लीलता  के  कोड  वर्ड  से  लेकर  गालियों  तक  में  क्रिकेट  का  हीं  कोड  वर्ड  होता।  इन्हीं  अफवाहों  के  बीच  हमलोग  स्कूल  से  भी। निकल  गये, युनिवर्सिटी   भी  पास  हो  लिये। आधे  दोस्त  उसी  जगह  पर  रह  गये, कुछ  लोग  बाहर  भाग  गये,  कुछ  लोग  विलुप्त  ही  हो  गये।
पर  हमलोग  जब  भी  मिलते  अजॉय  सर  वाली  बात  निकलती  और  फिर  उन  लड़कियों  के  बारे  में  जिनके  घर  पर  दिन  में  ही  बारात  लगा  देने  की  कसमें  कई  दोस्तों  ने  खाये  थे।
"अरे! यार, वो  लड़की   तो  दिखी  ही  नहीं  बोर्ड  एग्जाम  के  बाद"।
" अरे! मैंने  तो  उसे  जू  के  पास  देखा  था,  किसी  का  वेट  कर  रही  थी।"
" अरे! वो  कैसे  कमिटेड  हो  गई  यार, आई लॉस्ट  द  बेट"।

इन  सब  बातों  के  बीच  हमलोग  एकदम  बदल  गये  थे, एक आक्रामक  रफ़्तार  के  साथ। पर एक  लड़का  आज  भी  नॉर्थ स्टार(ध्रुव  तारा)  की  तरह  ही  था। नंदन  आज  भी  इन  बातों  में  दिलचस्पी  नहीं  लेता। मानो  इस  दुनिया  की  कोई  भी  चीज़  नंदन  के  लिए  न  हो। अकेले  रहना  उसने  जैसे  चुन  लिया  था।
मैं  मिलने  पर  उससे  कहता-
" यार, इंटरेस्ट  जगाओ, ऐसे  कब  तक  चलेगा"।
वह  सुनकर  भी  अनसुना  कर  देता। इतनी  कम  उम्र  में  ही  बेहद  तनाव  की  जिंदगी  जीता।

एकदिन  ऐसे  घूमते-घूमते  ही  नंदन  ने  मुझसे  कुछ  कहा।
"यार, तू  तो  मुझे  समझता  है  न"।
मैंने  कहा -"नहीं", तुझे  तो  पैदा  करने  वाला  भी  नहीं  समझ  सकता।
उसका  चेहरा  लाल  हो  गया।
मैंने  कहा-
"आई  अंडरस्डैंट  यू  डियर"।
क्या  बात  है  बताओ।

उसने  कुछ  देर  विराम  लेकर  कहा-
"तुम्हें  अजॉय  सर याद  हैं"।
मैंने  तपाक  से  जवाब  दिया-
" अरे! वही अजॉय  सर न....।"
उसका चेहरा  उतर  गया।
मैंने  रूककर  कहा-
"तुझे  क्या  हुआ"?
यार  मुझे  कोई  नहीं  समझता,  मैं  जिस  तनाव  में  जीता  हूँ  उतना  में  तुम्हारा  दिमाग  बंद  हो  जायेगा। आख़िर  मैं  अपनी  बातों  को  किससे  बताऊँ। घरवाले  समझते  ही  नहीं। माँ  को  एकबार  बताया  था, उसके  बाद  पापा  ने  जो  तुफान  मचाया  उसको  यादकर  मेरा  दिल  दहल  जाता  है।
मैंने  कहा-
"सीधा-सीधा  बता  न  गुगली  क्यों  फेंके  जा  रहा  है  तबसे"

यार  तुम  सिरियस  होगे  तब  तो  बताऊँ।  तुम  मेरा  मजाक  तो  नहीं  न  करोगे।
अरे!  बिल्कुल  नहीं,  मैं  अपने  पापा  की  कसम  खाकर  कहता  हूँ , एकदम  मज़ाक  नहीं  करूँगा।

पक्का  न!!
हाँ, पक्का।
यार, अजय  सर  जो  हैं  न।।।
हैं  तो, आगे  भी  कुछ  बोल।
यार!!! आई  ऐम  इन  लव  विथ  हिम।
कुछ  देर  के  लिए  मुझे  काठ  मार  गया।  मैं  सन्न  रह  गया। जैसे  किसी  ने  मुझे  घर  से  लाकर  किसी  अनजान  चौराहे  पर  तमाशा  दिखाने  के  लिए  खड़ा  कर  दिया  हो।
मैंने  फिर  मज़ाक  किया-
अबे! तुम  न   ये  ऑस्कर  वाइल्डवा  को  पढ़कर  पगला  गये  हो। और  कुछ  बात  नहीं  है।साले  फैंटेसी  से  निकलो।  जेल  में  चले  जाओगे।

मैंने  देखा  एकाएक  उसका  चेहरा  लाल  हो  गया, आँखों  में  आँसू  आ  गये उसके।  जिस  आदमी  से  हर  बात  पर  मैं  सलाह  माँगता , उसको  ऐसे  मजबूर  देखकर  मैं  भी  हिल  गया।

आगे  मैंने  कहा-" तुमने  जिस  रास्ते  को  चुना  है, तुम्हें  वहाँ  से  लौटना  ही  होगा"।

मैं  कैसे  लौट  सकता  हूँ। तुम  जो  लौटने  की  बात  करते  हो  वह  प्रकृति  के  नियमों  को  चुनौती  देने  वाला  है। अगर  मैं  अजॉय  से  प्यार  करता  हूँ  तो  इसमें  मेरी  क्या  गलती  है। लड़कियों  की  ओर  अगर  मेरा  आकर्षण  नहीं  है  तो  इसमें  मेरा  क्या  गुनाह  है। इस  बात  को  मैं  किसी  को  कैसे  समझा  सकता  हूँ।

और  तो  और  जब  मैंने  अपनी  माँ  से  इस  बात  को  शेयर  किया  तो  कुछ  दिनों  के  बाद  हीं  उन्होंने  एक  लड़की  से  शादी  ठीक  कर दी। उस लड़की  का  मैं  क्या  करूँगा। मैं  कैसे  उनलोगों  को  समाऊँ  की  मैं  कोई  काम  पिपासु  नहीं  हूँ। यार,  मैं  उस  लड़की  की  जिंदगी  नहीं  बर्बाद  कर  सकता।
मैं  तुम्हें  उसका  नंबर  दे  रहा  हूँ। तू  उसे  सब  सीधा-सीधा  बता  देना।
मैंने  कहा -"यार, सब  ठीक  हो  जायेगा"
"इन द  लांग  रन  वन  गेट्स  यूज्ड  टू  एवरीथिंग"

उसने  मुझे  दुत्कारते  हुए  कहा-" तुममे  से  कोई  भी  आदमी  नहीं  है"
"इन  द  लांग  रन ऑल  आर  डेड"।
एक कागज़  पर  दस  अंक  लिखे  हुए  थे। अंक  नहीं  किसी  की  जीवन  रेखा।
अगले  दिन  हीं  मैं  वापिस  आ  गया  और  ऑफिस  के  कामों  में  ठीक  उसी  तरह  रम  गया  न  चाहते  हुए  भी  मार  के  डर से  गदहे  कपड़े  लादने  के  काम  में  बस  जाता  है। करीब  एक  सप्ताह  बीत  गये, वह  कागजरूपी  जीवनरेखा  मेरी  जेब़  में  जस का  तब  तस  वैसे  ही  पड़ा  रहा  जैसे  रक़्त  में  जोंक  पड़ा  रहता  है, एक  अंतहीन  आशा  में।

उस रात को मैंने  कुछ  पढ़ना  चाहा।  जैसे  ही  पढ़ने  बैठा, फोन  रिंग  देने  लगा।
मैंने  रिसिव  किया। माँ  घबरायी  हुई  आवाजों  में  बोल  रही  थी- बेटा!!!!
हाँ, माँ  क्या  हुआ बोलो।।
बेटा।।। नंदन  ने  सुसायड  कर  लिया।

कुछ  देर  मैं  वही  टेबल  पर  सन्न  होकर  बैठा  था  और  किताबों  के  पन्ने  से  कुछ  शब्द  की  आकृति  उभर  रही  थी।
"तुम्हारी  प्रेरणाओं  से  मेरी  प्रेरणा  इतनी  भिन्न है"
" कि   तुम्हारे  लिये  जो  अमृत  है, मेरे  लिये  वह  विष  है"।

Wednesday 1 February 2017

निबाह-2


मेरी  जिंदगी  में  हर  घटनाएं  अकारण   ही  घटी  और  जैसा  की  मैं  कह  चूका  हूँ  कि मैं  इन  घटनाओं  को  अपने  भीतर  से  गुजरने  दे  रहा  था। दीपा  का  हाँथ  मेरे  हाँथ  में  आ  जाना  भी  एक  ऐसी  घटना  है  जिसका  ज़िक्र  मैं  थोड़ी  देर  बाद  करूँगा। क्योंकि  समय  के  साथ-साथ  घटनाओं  पर  से  रहस्यों  का  परदा  गिरने  लगा  है  और  घटनाएं  एकाएक  अपने  असली  रूप  में  हमारे  सामने  ऐसी  तीव्रता  के  साथ  आ  जाती  है  कि  फिर  हमलोग  उनमें  रहस्य  खोजने  लग  जाते  है। उस तीव्रता  को  कम  करने  के  लिए  मैं  उसकी  चर्चा  जरूर  करूँगा।
समय  की  नीरवता  को  तोड़ने  के  लिए उन  घटनाओं  को  लेकर  मैं  स्वयं  भी  उत्कंठित  हूँ।

लेकिन  उसके  पहले  चंद्रमाधव  की  दादी  के  बारे  में  बताना  चाहता  हूँ। चंद्रमाधव  की  दादी  जमीनदारों  के  चाहरदिवारी  और  किलों  में  बंद  तमाम  औरतों  का  प्रतिनिधित्व  करती  है। किले  में  बंद  औरतें  स्वभाव  से  विद्रोहिणी  नहीं  होती हैं, पूरे  वातावरण  की  नीरवता  और  शितलता  को  अपने  भीतर  समेटे  होती  हैं  किले  में  बंद  औरतें।

पर  चंद्रमाधव  की  दादी  जन्म  से  ही  विद्रोहीणी  थी। दादी  का  नैहर (मायके)  के  एक  बड़े  जमीनदार  के  यहाँ  था।  जैसा  की  मैं  पहले  भी  कह  चुका  हूँ  कि- "दादी के मस्तिष्क  में  प्रलय  का  कोई  शिलालेख   मौजूद  है, जो  उन्हें  अपनी  जिंदगी  की  तमाम  कठिनाइयों  को  सरलता  के  साथ  व्यक्त  करने  की  ताकत  देता  है"।

दादी  कहती  हैं- जमीनदारी  तो  उपरे  से  देखै  में  बड़ा  ठाट-बाट  जैसन  लगता  है, लेकिन  भितर  से  एकदम  खोखड़( खोखला ) होता  है।
जमीनदारों  ने  अपने  रैयतों  के  साथ  जो  अन्याय  किया  है उसका  फल  आज उन्हें  भूगतने  को  मिल  रहा  है। एकसमय  ऐसी स्थिति आ गई कि-" अगर ये  लोग  अपने  घर  का  फाटक  खोल  देते  तो  उनके  घर  की  तमाम  औरतें  रैयतों  के  साथ  मिल  जातीं"।

दादी एक  कहावत  कहती थीं-
" ऊँच  बड़ेडी, खोखड़ बाँस"
"कर्जा खाये  बारहो  मास"।

नरक  परलोक  में  थोड़ै  होता  है। हर हवेली  के  आँगन  में  होता  है  और  समय-समय  पर  उसका  दरवाज़ा  खुलता  है  और  हर एक  औरत  को  अपने  चपेट  में  ले  लेता  है।
दादी  अपनी  दास्तांगोई  आगे  कुछ  इस  तरह  बयान  करती  हैं-

तेरह  बरिस  में  हमरा  बियाह  होय  गये  रहा  और  जब  बियाह  के  असली  उमर  होलै  ओखनी  हम  सात  बूढ़ी  में  एक  बूढ़ी  होये  गै  रहीं। चंद्रमाधव  को  चिन्हित  करके  वह  आगे  बोलती  हैं-
"एकरा  दादा  से  हम  एको  सुख  न  जाननीं, ओकरा  खाली  मेहरारू(पत्नी) जौरे(साथ में)  सूते(सोना)  आवत  रहै"।

"जमीनदारी  के  निशा  (नशा),  सब  खेत-बधार  पतुरिया (वेश्या)और  रखैल  में  उड़ा  देलैं"।

मेरे  सामने  एक  अस्तित्व  का  संकट  खड़ा  हो  चुका  था। मैं  तो  स्वयं  का  जैसे-तैसे  निबाह  कर  रहा  था  और  दादी  ने  फिर  एक  मलामत  माथे  पर  मढ़  दिया  था।
लड़कियों  और  औरतों  का  सब  जगह  निबाह  ही  तो  किया  जाता  था। हर  जगह  मांस  के  लोथड़े  जैसा  ही  तो  उनसे  व्यवहार  किया  जाता  है। पहले  दीवारों  में  कैद  रहती  हैं, फिर  जब  बाहर  निकलती  हैं  तो  कई  किस्म  के  शिकारियों  की  नज़र  पड़ती  है।

आगे  तो  मुझे  भी  निबाह  ही  करना  था। दादी  की  स्थिति  कुछ  ऐसी  थी  की  मैं  चाहकर  भी  उनसे  कुछ  कह  न  पाया। और  कुछ  न  कहने  का  यही  मतलब  था   की " मैंने  दीपा  नाम  की  एक  महाजन  को  स्विकार  कर  लिया  था"। मेरे  विचार  उस  वक़्त  भी  ऐसे  नहीं  थे  की  किसी  लड़की  को  मैं  महाजन  बना  दूँ। पर  शायद  दीपा  मेरे  लिए  महाजन  ही  थी  एक  वक़्त।

एक  व्यक्ति  जो  खुद  अपने  भीतर  के  हजारों  अंतरद्वंदों  से  टकरा  रहा  हो, बहुत  असहज  हो, उसे  आत्महत्या  के  सवाल  परेशान  कर  रहे  हों, जो  व्यक्ति  अस्तित्व  संकट  से  जूझ  रहा  हो, उसके  लिए  एक  और  व्यक्ति  को  संभालना  शायद  सबसे  मुश्किल  कामों  में  से  एक  है।

आत्महत्या  से  जुड़े  सवाल  शायद  इतने  उलझे  नहीं  होते। उलझन  तो  अंतर्तत्वों  में  होता  है  जिनके  अधीन  एक  व्यक्ति  जी  रहा  होता  है।
इस लड़ाई  में  दो  रास्ते  हमारे  पास  होते  हैं-
" एक रास्ता  जाता  है  जिंदगी  की  तरफ तो  दूसरा  मौत  की  तरफ"।
मैंने  पहले  वाले  रास्ते  को  आत्मसात  कर  लिया।

मैं  और  दीपा  उसी  अनजान  शहर  के  एक  सुनसान  कमरे  में  साथ  रहने  लगे  थे।  हमदोनों  न  चाहते  हुए  भी  एक  साथ  रहने  लगे। शायद  साथ  रहने  के  लिए  प्रेम  का  होना  बेहद  जरूरी  होता  है।
पर  प्रेम  का  उत्सर्जन  कहाँ  से  होता है?
प्रेम  करने  के  लिए  सपने  का  होना  जरूरी  होता  है। पर  मैं  उस  लड़की  में  सपने  के  बचे  होने  की  उम्मीद  कैसे  कर  सकता  था  जो  लगातार  करीब  पंद्रह  वर्षों  तक  दीवारों  में  कैद  रही। उन  दीवारों  में  सपने  भी  उधार  ही  लिए  जाते  हैं  और  उधार  लिए  हुए  सपनों  से  कोई  प्रेम  नहीं  कर  सकता  है।
हमारे  सपनों  का  मर  जाना  सबसे  खतरनाक  तो  है  पर  सबसे  खतरनाक  होता  है  उधार  के  सपने  को  अपना  भविष्य  मान  लेना।

जिन  दीवारों  में  दीपा  कैद  रही, वहाँ  तो  मरने  तक  की  इज़ाज़त  नहीं  दी  जाती। भला  फिर  वहाँ   सपने  देखने  की  बात  कौन  सोच  ही  सकता  है? वह  दीवारे  ही  लोगों  को  अनासक्त  बना देती  है  और  लड़कियों  को  कुछ  हद  तक  विद्रोहिणी  भी।
आकाश  बहुतेरों  के  लिए  सिर्फ  एक  अतिरिक्त  चीज  हो  सकता  है,  पर  दीपा  के  लिए  आकाश  एक  अंतहीन  चीज़  है, बिल्कुल  उसकी  जिंदगी  की  तरह।
सुनसान  गलियों  के  आखिरी  मकान  में  बसे  एक  छोटे  से  कमरे  में  दीपा  का  दिन  कटता, रात  को  अंतहीन  आकाश  में  हजारों-लाखों  प्रकाशवर्ष  की  दूरी  पर  बसे  तारों  को  देखकर।  टूटते  हुए  तारों  को  देखकर  दीपा सिहर  जाती  जैसे  उसको  पता  हो  कि-" एकदिन  उसे  भी  ठीक इसी  तरह  टूटना  होगा"।

पाँच  वर्ष बीत  गये  और  धीरे-धीरे  हमारी  आर्थिक  स्थिति  में  भी  सुधार  होने  लगा। पर  इन  पाँच  पतझड़ो  के  बाद  भी   नयेपन  का  इंतज़ार  था।  पहले  तो  घटनाएं  बिन  बुलाये  आ  जाती  थीं। पर  इन  पाँच  सालों  में  बस  एक  ही  घटना  रूप  बदल-बदलकर  आती  रही  और  हम  दोनों  उनसे  जूझते  रहे  और  लड़ते  रहे।

मेरा  गाँव  आना  जाना  भी  लगा  रहा। पर  जब  मैं  गाँव  जाता  तो  ऐसा  लगता  की  इन  पाँच  सालों  में  बदलकर  भी  बहुत  कुछ  नहीं  बदला  है। सबकुछ  वही  तो  है। मेरी  माँ,  मेरी  दादी  और  सब  भी  वही  हैं। दादी  थोड़ी  और  बूढ़ी  हो  गईं , कमर से  झूक गई, आवाज़  में  जो  एक  मजबूती  थी वह  न  जाने  कहाँ  चल  गया, शरीर  के  चमड़े  भी  धीरे-धीरे  साथ  छोड़ने  लगे  थे, नैतिक  और  दिनचर्या  की  क्रियाओं  में  भी  दादी  को  माँ  का  सहारा  चाहिए  था।
उम्र  का  असर  ये  हुआ  कि " दादी  जो  पहले  धार्मिक  नहीं  थीं, अब  राम-भजन  करनें  लगीं"।

"कलयुगवा  में  राम-नाम  भज ल हो"
" बेटा-बेटी  कोई  काम  न  देतौ"
" छूट जैतो  तन  से प्राणवाँ हो"
"कलयुगवा  में  राम-नाम  भज ल  हो" ।

माँ  को  मैंने  कभी  बदलते  हुए  नही  देखा। मेरी  माँ सिली  होठों  वाली  माँ  थी। उसका  न  बोलना  ही  मेरे  लिए  लाखों  शब्द  और  भावनाएं  लिये  होता  था। माँ  के  चेहरे  को  मैं  पढ़  लेता, उनकी  आँखों  को  देखकर  पता  चल जाता  की वह  क्या  सोंच  रही  हैं। माँ
बस  इतना  हीं  कहती- " अच्छा  से  खाएल-पीयल  करीह"
" कोई  बात  के  चिंता न  करीह"
" मेहनत  के  फल  कहुँ  न  भाग  के  जायले"।

मैं  पहले  सोचता  था  कि - " हमारे  यहाँ  औरतें  बिना  काम-धाम  के  पूजा-पाठ  में  क्यों  लीन क्यों  रहती  हैं"?

अब  समझता  हूँ  की  कोई  आस्था  ही  तो  औरतों  को  उन्हें  अपने  बच्चों  से, पतियों  के  साथ  जोड़े  रखता  है। जो  औरतें  दीवारों  में  कैद  रहती  ही  उनके  लिए  सिर्फ  आस्था  ही  तो  आखिरी  रास्ता  है  अपने  आपको  जीवित  रखने  के  लिए। धर्म  को  श्रम  की  छाया  में  विलीन  किया  जा  सकता  है  लेकिन  किलेबंद  दीवारों   में  तो  सिर्फ  और  सिर्फ  घुटन, मानसिक व्यथा  और  लाचारी  है।

उस  दिन  रात  को  जब  मैं  सोने  गया  तो  एकाएक  दीपा  के  बारे  में  ख्याल  आने  लगे।
कहीं  मैंने  तो  उसका  जीवन  बर्बाद  नहीं  कर  दिया?
मेरे  अंतर्मन   ने  दस्तक  दिया-"तुम  तो  उसे  छूने  से  पहले  भी  उसके  आज्ञा  की  प्रतीक्षा  करते  हो"।

कहीं  मैने  उसे  और  गहरी  खाई  में  लेकर  तो  नहीं  चला  गया  जहाँ  से  उसका  निकल  पाना  असंभव  है।
हमारा  समाज  औरतों  के  नाम  जाने  से  पहले  उसके  रखवाले  का  नाम  जानना  चाहता  है। आखिर  दीपा  से  कोई  ऐसा  प्रश्न  पूछ  दिया  तो  वह  किसका  नाम  लेगी। वह  तो  गुंगी  गुड़िया  है  अभी  भी।  ये  सब  मेरे  चलते  ही  तो  हुआ  है। अगर  मैं  अपनी  जिम्मेदारी  से  भाग  खड़ा  हुआ  तो  दीपा  का  क्या  होगा?
रातभर  मैं  करवटें  बदल-बदलकर  अपने  आप  से  ही  टकराता  रहा, फफक-फफकर रोता  रहा।

आखिर  मैं  चंद्रमाधव  को  क्या  जवाब  दूँगा। उसे  तो  मुझमें  अपने  आपसे  अधिक  विश्वास  है। क्या  मैं  क्षण  भर  में  उस  विश्वास  की  हत्या  कर डालूँगा?
नहीं, मैं  ऐसा  नहीं  कर  सकता। तो आखिर  मैं  कर  भी  क्या  सकता  हूँ?

अगले  दिन  मुझे  शहर  निकलना  था। हमारे  यहाँ  शादियों  के  दो  समय  सबसे  बेहतर  होता  है।
" जब  आप  कुछ  नौकरी  कर रहे  हों  और  आपके  घर  मे  आर्थिक  संकट  गहरा रहा  हो"।
"जब हमारे दादा/दादी  कुछ  समय  के  बाद  अनंत  की  यात्रा  करने  वाले  हों"।

मेरे  पक्ष  में  दोनों  परिस्थितियां थीं। जब  घर  से  निकलने  वाला  था  तो  दादी  ने  बुलाकर  कुछ बातें  कहीं-
" बबुआ अब  हम जादे दिन  के  मेहमान  न  हियै, पोता  के  बियाह  देखल  बड़ी  भाग्य  के  बात रहे लै"।
" ई  साल  हाड़  में  हरदी(हल्दी) लग  जाये  के  चाहि"।

माँ  अपने  चेहरे  के  भाव  से  ही  दादी  की  बात  का  पूर्ण  समर्थन  कर  रही  थी। उसने अपने  सिले  होठ को  बंद  ही  रखना  वाज़िब  समझा।
मैं  कुछ  व्यक्त  किये  तपाक  से  निकल  गया। दादी  ने  आज  गहरा  प्रहार  किया  था।

मैं  बस  में  जब  बैठा  तो  अपने  अंदरूनी  सवालों  के   जवाब  देने  लायक  नहीं  था।

मैंने  किस-किस  को  नहीं  ठगा। चंद्रमाधव  को , दीपा  को , करूणा  से  ओतप्रोत  अपनी  माँ  को, अपनी  बूढ़ी  दादी  तक को।
  
इन्हीं  गहराते  हुए  सवालों  को  साथ  लेकर  कुछ  समय  बाद  मैं  दीपा  के  सामने  खड़ा  था। आज  दीपा  साक्षात  लक्ष्मी  की  तरह  लग  रही  थी। दीपा  बिल्कुल  उसी  तरह  मुस्कुरा  रही  थी  जैसे  मिट्टी  की   मूर्तियों  वाली  निर्जीव  लक्ष्मी  मुस्कुरा  रही  होती  हैं। आज  न  जाने  मेरे  जैसे  आस्थाहीन  व्यक्ति  को  लक्ष्मी  के  बारे  में  ख़्याल  आने  लगे। शायद  मैं  अपनी  गलतियों  का  प्रायश्चित  दीपा  को  लक्ष्मी  बनाकर  करना  चाहता  था।

दीपा  आज  बड़ी  उल्लासित थी। उसने  मुझसे  पहली  बार  कोई  मज़ाक  किया।
"आ  गये  अपनी  माँ  और  दादी  के  पास से"।
" उन्हें  मेरे  बारे  में  बताया  या  नहीं"।

दीपा  आगे  बोली-
"भगवान  जाने  मेरे  भाग्य  में  क्या  लिखा  है"?
"इन  पाँच  सालों  में  तो  बस  दो  दीवारों  की  दूरी  ही  तय  कर  पायी  हूँ"।

ये  सब  मेरे  ऊपर  फिर  चट्टान  की  तरह  गिर पड़े। मैं  कुछ  कहना  चाहता  था  पर  हिम्मत  न  कर  सका।

मुझे  आज  ऐसा  लग  रहा  था  की-" दीपा  प्रेम  करना  भी  सीख  गई   है"। दीपा  का  प्रेम  करना  सीख  जाना  मेरे  लिए  हानिप्रद  था। प्रेम में  कई  उलझे  हुए  सवाल  होते  हैं, कई  अनकहे  प्रसंग  होते  हैं। मैं  सवालों  से  डरता  था।
मैं  अपने  भीतर  एक  अजीब  सी  बेचैनी  लिये  था।

रात  को  जब  मैं  एकांत  सोया  था  तो  सहसा  मेरी  नींद  खुली। दीपा  अपने  नाखुनो  से  मेरे  केशों  को  सहला  रही  थी। एकाएक  मेरे  भीतर  एक  आत्मियता  का  भाव  जाग उठा, मेरा  रोम-रोम  पुलकित  हो  उठा। वातावरण  कुछ  ऐसा  बना  मानोकि  आज  पहली  बार  दो  व्यक्तियों  का  मिलन  होने  वाला  हो। मैं  दीपा  की  वक्षों  की गरमाहट  में  पूरी  रात  बिता  देना  चाहता  था।

पर सहसा  दीपा  ने  मेरे  कल्पनाओं  के  ऊपर  धावा  बोल  दिया।
क्या तुम मेरे  कुछ  सवालों  का  जवाब  दोगे,दीपा ने  पूछा।
मैंने कहा-"जरूर"।
"क्या तुम  मुझे  हमेशा  इसी  रूप मे देखना चाहते  हो?"
"मुझे लोग  तुम्हारी  रखैल  कहेंगे  तो  तुम्हारे  पास  क्या  उत्तर  होगा"?
"एक  कैदखाने  से  तुमने  मुझे  मुक्त  करवाया है, क्या तुम  मुझे  फिर  वहीं  धकेलना  चाहते  हो?"

मैंने  अपने  गीले  होठों  से  दीपा  के  माथे  को  चुम  लिया  क्योंकि  मैं  जवाब  देने  में  असमर्थ  था।
दीपा  के  सवालों  ने  मुझे  उस  सुनसान  गली  से  उठाकर  एक  निर्जन  वन  में  ला  खड़ा  कर  दिया  था। पर  जिस  तरह  सुनसान  घाटियों  में  सूरज  के  उगने  न  उगने  से  फर्क  नहीं  पड़ता,ठीक उसी  तरह  दीपा  के  सवालों  का  हाल  हो  गया।

पर  जब  आपको  लगे  की  आपकी  जिंदगी  एकदम  पटरी  पर  है, ठीक  उसी  समय  आपके  आसपास  सबसे  अधिक  उथल-पुथल  हो  रहा  होता  है। ठीक उसी  समय विपरित दिशा  से  एक रेल  आ  रही  होती  है  आपको  बेपटरी  करने  के लिए। मेरे  साथ  भी  कुछ  ऐसा  ही  हुआ।

मैं  क्या  कर  रहा  हूँ,  मैं  क्या  खा  रहा  हूँ, मैं  किसके  साथ  रह  रहा  हूँ, मैं  किसके  साथ  सो  रहा  हूँ, इन  बातों  का  मेरे  लिए  कोई  खास  महत्व  नहीं  था।
पर  मेरे  आस-पड़ोस  के  लिए  इन  बातों  का  एक  गहरा  महत्व  होता ।  एकदिन  मेरे  दफ़्तर  में  फोन  की  घंटी  बजती  है, कुछ  देर  बाद  मैं  वहाँ  खड़ा  कुछ  सवालों  का  सामना  कर  रहा  होता  हूल।
मेरी  दादी  बोल  रही  होती  हैं-
"बबुआ ई  का  कईल, बियाहे  करे  के  रहै  त  खबर कर देत हल, हम  न रोकतीं"
"सब करल-धरल  मिट्टी  में  मिला देल"
" कहिंयो  मुँह दिखावे लायक न छोड़ल"
"तोरा  से ई  आशा  न  रहै"
"बुढ़ापा में ई  दिन  देखे  के  मिली  कभी न सोचली हल"

मैं निश्ब्द तपते  हुए  पत्थर  की  तरह इन बातों को  अपने  भीतर  से  गुजरने  दे  रहा  था।
जब घर  आया  तो  कुछ  हल्का  महसूस  कर  रहा  था। आज  किसी  से  जैसे  एकाएक  सारे  नियमों  और  बंधनों  को  क्षण  भर  में  मेरे  भीतर से  हमेशा  के  लिए  उखाड़ फेंक  दिया  था।

अगले  दिन  मैं  अपने  गाँव  में  था। सिली  होठों  वाली  माँ  आज  मुझसे  लिपटकर  पहली  बार  रो  रही  थी। आँसुओं  की  बुँदें  माँ  से  सूखे  हुए  गालों  से  गिरकर मेरे  हाथों  से गुजरते  हुए  आंगन  की  मिट्टी  में  सोख  लिये  जा  रहे  थे।
दादी  दृढ़  थीं, शायद  समाज का  सामना  करने  को  लेकर  तैयार  थीं।
दादी आगे  बोलीं-
"मुखिया  बोल  के  गये हैं कि    जात  से  बाहर  कर देंगे"
"कह रहे  थे  की  तुम सगोत्रीय वियाह कर  लियो  हो"
"सगोत्रीय विआह  से  जात-बिरादर  का  खून गंदा  हो  जाता  है"
" हमेशा  के  लिए  गाँव  छोड़वाने  की  धमकी देकर गये  हैं"

मैं  सिर झुकाये  नि:श्बद  खड़ा  था।

मेरी  माँ  जो  कभी  नहीं  बोलती  थीं, रौद्ररूप  धारण  किये  हुई  थीं।
"मुखिया  कौन  होते  हैं  हमरा  घर  के  ठेका  लेवे ओला"
"उनखर  ठेकेदारी  कोई  और  मानी, हम काहे  मानब"
"मुखिया  से  कोई  कुकर्म  छुटल  है, उनका  त  कोई  जाति  से  बाहर  न  कर  दिया  जब  ऊ  अपने  फुफेरी  बहिन के  एको  इज़्ज़त  के  न  रहे  दिये"
"मेहरारू  के  अछैत(रहते  हुए) पाँच  को  रखैल रखे  हुए  हैं"
" हमरा  इज़्ज़त  के ऊ  कौन  होते  हैं  फैसला  करे  ओला"
"ई  हमर अपन  घर  के  बात  हैं, हम देख लेवेंगे"
" ऊ  लड़की  के  निबाह  तो  अब  करही के  पड़ी"।

मैं  गदगद  होकर  माँ  से  लिपट  कर  रो  रहा  था।
माँ  ने  मुझे  इस  काबिल  बना  दिया  था  की  मैं  दीपा  के  सवालों  का  जवाब  अब  दे  सकूँ।
मैं  मन  ही  मन  सोचे  जा  रहा  था-
" ऐ  दुनिया  तू  विकल्पहीन  नहीं  है"।